Two things are infinite: the universe and human stupidity; and I’m not sure about the universe ~ Albert Einstien
ब्रिजेश जी से मेरी पेहली मुलाक़ात उस वक़्त हुई जब मैं नया नया देहली में आया था. एक प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थान का उत्पाद ना होने का लांछन अपने ललाट पर लिये मैं दफ्तर से दफ्तर धक्के खा रहा था. उन्हीं दिनों एक सज्जन ने मेरी स्थिती पर तरस खा कर मुझे एक बहुराष्ट्रिय कंपनी में मैनेजर के पद पर नौकरी पर रख लिया. मैं वक़्त का मारा था और सही मायने में मैनेजर बननें के काबिल नहीं था और उन साहब की कंपनी को सिवा उनके कोई बहुराष्ट्रिय क्या राष्ट्रिय भी नहीं मानता था. खैर ये तय था कि एक दूसरे के घाव को हम में से कोई नहीं कुरेदेगा और हम परस्पर सौहार्द बनाये रखेंगे.
सो जान में जोश और मन में ललक लिये मैं पेहले दिन दफ्तर में दाखिल हुआ जो कि एक फैकट्री को आफिस की शकल देनें की एक नाकाम कोशिश से ज़्यादा कुछ नहीं था.ज़ो एक वस्तु उस जगह पर अंतरराष्ट्रिय सी थी वो वे सज्जन खुद थे और वो भी इसलिये क्योंकि उनका 25 साल पुराना पासपोर्ट उनकी जवानी का मखौल उडाते हुए ऐसा केहता था. और यहीं मेरी मुलाकात श्री श्री 1008 ब्रिजेश जी से हुई.
छूटते ही ब्रिजेश जी ने नये रंगरूट यानि कि मुझे, गियर में ले लिया. नीली लिखने वाली कलम के अभाव में ज्यों हि मैंने हरी स्याही की कलम से हस्ताक्षर करनें चाहे ब्रिजेश जी उठ खडे हुए और गरजे :
ये क्या कर रहे हो
साइन कर रहा हूं . क्यों ?
नये नये आये हो और पेहले ही दिन नौकरी से हांथ धो बैठोगे
मैं कुछ समझ न पाया और सवालिया निगाहों से उन्हें निहारनें लगा.
यहां सिर्फ नोएल ( कंपनी के मालिक जिनका वर्णन मैं कर चुका हूं) हरे कलम से साइन करता है.
और अगर कोई और करे तो ? मैंने ललकारा.
तो क्या नौकरी गयी.
मेरा मन घबराया पर वैसे ही जैसे बेटे का बाप की जेब से पैसे निकालते समय घबराता है.
कुछ समय यों ही काम करते बीत गया और फिर जैसे बोरियत को मिटानें के लिये ब्रिजेश जी मेरी ओर मुखातिब हुए और बोले :
सुनो
क्या ? मैने ज़रा खिन्न होकर कहा
ज़रा एक गिलास पानी ले आओ
क़्या !!!! गरजनें की बारी अब मेरी थी
अभी नये आये हो ना. मल्टीनैशनल कल्चर नहीं जानते. क्या एक ऐसोसियेट दूसरे ऐसोसियेट की हैल्प नहीं कर सकता ? बहुत छोटी सोच है तुम्हारी.
मल्टीनैशनल कल्चर गया तेल लेनें.अगली बार मुझसे पानीं लाने को कहा तो बोतल सर पे फोड दूंगा
क्या यार आज कल भलाई का ज़माना ही नहीं रहा. मैंने तो सोचा कि तुम्हारा ओरियटेशन कर दूं और तुम तो मार पीट पर उतर आये.खैर जाने दो मुझे क्या ? याद करोगे जब दिल्ली की प्रौफेशनल लाइफ में फिट नहीं हो पाओगे और ट्रेन में वापस जाने के लिये नई दिल्ली स्टेशन पर खडे होगे.
देखा जायेगा पर मुझसे अगर बकवास की तो ….
इस दिन के बाद ब्रिजेश जी मेरा मिजाज़ खूब समझ गये और देखते ही देखते उनका स्वभाव मेरी तरफ नर्म हो गया. इस बदलाव की एक छोटी सी वजह ये भी थी कि वो मुझे ही रिपोर्ट करनें लगे थे.
हम सभी की ज़िंदगी में एक व्यक्ती अती विशिष्ठ होता है – हम. परंतु ब्रिजेश जी में ये भावना कुछ ज़्यादा ही प्रतिष्ठित थी. ना जानें क्यों पर उन्हें हमेशा ये चिंता सताये रेहती कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते होंगे. वो अक्सर इस गम में डूबे रेहते कि आज अगर मैं बाल तिरछे काढ लेता तो फलानी पर मेरा इंम्प्रेशन ज़बर्दस्त पड जाता. हम पूछते कि फलानी कौन ? और वो केहते की वही जो आज टैम्पो में सामने बैठी थी. सिवा एक आह के मेरे दुखी मन से और कुछ संभव न हो पाता था.
इसी कडी में एक दिन कुछ बायर ( माल खरीदनें वाले) अमरीका से हमारी कंपनी के दौरे पर आये. उनमें सबसे गणमान्य व्यक्ती को वो केबिन दिया गया जो हमारी बैठने की जगह के ठीक पीछे था. केबिन वातंकूलित था और चारों ओर से उसमें शीशे लगे थे. मैं दिन भर ब्रिजेश जी की गतिविधियों को ताडता रहा.ज़ानता था कि अनहोनी होने को है. दिन भर एक ऐसे आदमी के सामने बैठना जिस पर इम्प्रेशन जमाने की कोशिश हमारी कंपनी का मालिक तक कर रहा हो ब्रिजेश जी के लिये बहुत था. वो परेशान थे ये तो विदित था पर इतने परेशान इसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी.
करीब पांच बजे के आस पास वो मेरे पासआये और बोले – मुझे लगता है कि साला अंग्रेज़ मुझसे चिढ गया है.
भला वो क्यों ? आपने कौन सी उसकी भैंस खोल ली है ?
पता नहीं यार हर आदमी को मैं ही क्यों खटकता हूं जबकि एस दफ्तर में सबसे मेहनती और होनहार अगर कोई है तो वो मैं हूं
इसमें क्या शक़ है पर आपको ऐसा क्यों लग रहा है कि वो आपसे चिढ गय है.
कमीना दिन भर मुझे घूरता रहा और अभी अभी मैंने उसे नोएल से धीरे धीरे कुछ केहते हुए देखा है.
मेरे अंदर का शैतान जाग चुका था.
मैं बोला – बडे दुख की बात है कि अपना साथ यहीं तक था. कंपनी का घोर दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि आपके जैसा टैलेंटेड और वफादार आफिसर एक अंग्रेज़ भेडिये की बिल्लौरी आखों पर बलिदान कर दिया जाये. आखिर भगवान ने आपसे पूंछ कर तो आपकी शकल बनायी नहीं कि साहब को उसे देख कर ही गुस्सा आ गया.
वो तो सब ठीक है पर किया क्या जाये ? नौकरी तो बचानी होगी.
मैंने सुझाव दिया – आफेंस इस द बेस्ट फार्म औफ डिफेंस. आप भिड जाइये ससुरे से.जो होगा देखा जायेगा … सर फरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ू ए कातिल में है.
मेरा ऐसा ही केहते ही ब्रिजेश जी की आंखों में खून तैर गया और वो अंग्रेज़ के बाहर निकलने का इंतेज़ार करने लगे. शाम हुई और वो समय आ गया जब अंग्रेज़ अपने केबिन से बाहर निकला.मैनें ब्रिजेश जी की ओर देखा … वो सीट पर बैठे बैठे उलट पलट रहे थे.
अंग्रेज़ हमारी ओर बढा तो मैं सच्मुच थोडा घबरा गया कि पता नहीं ब्रिजेश जी ने इशारों इशारों में ही देश के मेहमान के साथ कोई अभद्र व्यवहार तो नहीं कर डाला. पर ऐसा कुछ नहीं था. अंग्रेज़ सज्जन आगे बढा और ब्रिजेश जी के कंधे पर बडे प्यार से हाथ रख कर बोला –
यंग मैन कैन यू प्लीज़ शो मी द लू ( टायलेट) ?
ब्रिजेश जी के अंदर मानो करंट सा दौड गया और वो एक्दम उछल कर उस्के साथ हो लिये. आधे रास्ते पहुंचने पर अग्रेज़ बोला – हे आई कैन सी थे साइन इफ यू आर नाट प्लानिंग टु कम अलांग.
ब्रिजेश जी हर्ष और विस्मय का मिला जुला भाव लिये मेरी ओर आये और बोले – बच गये दोस्त.मैं गुंगुनाने लगा ” दिल के अरमां आंसुओं में बह गए…… ”
अनेकों चमत्कारों से भरे हुए हमारे मित्र ब्रिजेश जी के बारे में एक बात जो और खास थी वो थी उनकी बिना बात चापलूसी करने की अदा. एक तो उनके द्वारा की गयी तारीफ अत्यंत ही प्रकट तौर पर होती थी पर उससे भी भयानक थी उसकी टाइमिंग. किसी ने कहा है :
जिसे दिया था गुलाब का फूल कल मैंने , उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है.
और यही गुल ए गुलाब ब्रिजेश जी खींच कर सामने वाले के मुंह पर मार देते थे.
मिसाल देखिये :
दफ्तर में एक थे मिस्टर क्रिष्नामूर्ती . यथा नाम तथा गुण काले इतने कि हंसते तो ब्लैक ऐंड व्हाइट पिकचर याद हो आती. मोटी सी तोंद इस लूक को काम्प्लिमैंट करती थी और उस पर से उनका ड्रेस सेंस – एक्दम कातिलाना. अगर मौत से बचने की आखरी सूरत उनकी शान में चंद लफ्ज़ केहना होता तो शायद मैं खुशी से खुद्कशी कर लेता.
एक रोज़ जब सुबह सुबह जब क्रिष्नामूर्ती शायद अपनी बीवी से लड कर आफिस में घुसे ब्रिजेश जी उनके निकट गये और बोले – सर आज आप बहुत हैंडसम लग रहे हैं !!
डर के मारे मैंने आंखें बंद कर ली थी पर जो कुछ मेरे कान में पडा वो अद्भुत था. मिस्टर क्रिष्नामूर्ती खडे हो गये और अपना इंस्पैक्शन कराते हुए बोले :
तो बाकी दिन क्या मय ( मैं इन मलयालम) तुझे शाकाल लगता हूं ??
ब्रिजेश जी किंकर्तव्यविमूढ से एक टक देख रहे थे. शायद उन्हे एहसास हो चुका था कि ईश्वर के द्वारा किये गये काम मे टांग नहीं अडानी चाहिये.
एक और पात्र जो ब्रिजेश जी के अनचाहे गुलाबों से अक्सर घायल होता था वो थे हमारे जी एम साहब श्री सुरेन्द्र चावला. बात बे बात ब्रिजेश जी अपनी लगावट की अदायें उन पर बिखेरा करते और मैं हमेशा सोचता कि धन्य हैं चावला जी जो सिर्फ मुस्करा कर रह जाते हैं …..या हो सकता है कि मन ही मन उन्हें अपनी झूटी तारीफ सुनने में मज़ा आता हो.पर ऐसा होना अविश्वनिय था.
लेकिन वो केहते हैं ना कि बार बार अपनी तकदीर को आज़माना नहीं चाहिये , पता नहीं कब जवाब दे जाये. ऐसा ही एक दिन ब्रिजेश जी के साथ हुआ. चावला साहब के जीवन में एक कांटा था – नोएल. सब जानते थे कि जब भी चावला जी उसके कमरे में जाते हैं उनमें हीनता का भाव ऐसा भर दिया जाता है जैसे कि गुब्बारे में हवा. कमरे से बाहर आने के आधे घंटे तक उनसे कोई भी बात करना इस फूले हुए गुब्बारे में सुई चुभोने से कम नहीं था. उस पर कुछ ही दिनों पेहले चावला जी के पिता का देहांत हुआ था और वो बैठे बैठे ही अपने बचपन की यादें ताज़ा कर इमोशनल हो जाया करते थे. कुल मिला पर स्तिथी नाज़ुक पर कंट्रोल में थी.
इन्ही दिनो एक रोज़ जब चावला जी नोएल द्वारा प्रताडित हो कर अपनी सीट पर आकर बैठे ही थे कि ब्रिजेश जी ने उनकी इमोश्नल नीडस को एक्सप्लोएट करने की ठान ली. अपने मुखारबिन्द पर अत्यंत लुभावने भावों को प्रोजैक्ट करते हुए बोले :
सर आपसे कुछ केहना था ..
क्या ??
सर आपके पिताजी मर गये तो आप छुट्टी पर गये थे ना ….( वो ये भी तो कह सकते थे कि पिताजी नहीं रहे पर शायद ब्रिजेश जी शाक थिरैपी का इस्तेमाल करना चाहते थे सो बोले कि पिताजी मर गये)
हां तो ? चावला जी सर उठाये बिना कुछ लिख रहे थे
तो सर हमारा मन आपके बिना बिल्कुल नहीं लग रहा था
अबे उल्लू के पट्ठे !!!! मैं तुम्हारा दिल बेहलाने के लिये दफ्तर आता हूं क्या ??मैं कोई नौटंकी हूं कि मुझे देखे बिना तुम्हारा मन नहीं लग रहा था ? मैं यहां काम करने आता हूं तुम्हारा दिल बेहलाने के लिये नहीं … आपके बिना मन नही लग रहा था ईडियट !!
मेरा मतलब वो नहीं था सर .. मेरा मतलब था सर की जैसे . ब्रिजेश जी बैक फुट पर आ गये थे.
मैं तुम्हारा मतलब खूब समझता हूं मिस्टर .भाग जाओ नहीं तो …
बेचारे ब्रिजेश जी – चले थे चौबे छब्बे बनने बन के रह गये दूबे.अपना सा मुंह लिये सीट पर आ गये और सैम्पल पैक करने का नाटक करने लगे.
ब्रिजेश जी की एक और खास बात थी.
आप सोचते होंगे कि इतने कमाल एक ही शख्स में कैसे घुस सकते हैं पर घुस गये थे तो मैं क्या करूं ? मैं तो ठहरा सूत्रधार कथावाचक – ऐसा कैसे हुआ ? वैसा कैसे हुआ ये सब पूछना मेरे अधिकार की परिधी से बाहर है. खैर वो बात जो कि खास थी वो था उनका संगीत प्रेम. उसे वो सबसे छुपाते थे पर ऐसे कि सबको पता चल जाये –
फूल गिरता है उठाते नहीं हो, प्यार करते हो बताते नहीं हो.
य़े शेर ब्रिजेश जी ने नोयेडा की ब्लू लाइन बस के पीछे पढा था और बहुत प्रभावैत हुए थे. मुझे बाद मे पता चला कि उन्होंने इसे संगीतबद्ध करने की चेष्टा भी की थी.
सो एक रोज़ मेरे निकट आये और बोले आओ चलो बा्हर चलें. कार तो लाए हो ना ?
मैने सर हिलाया और अनमना सा उनके साथ चल पडा.
कार में बैठते ही उनके हांथ में एक कैसेट उग आया और उन्होंने उसे मेरे डैक में घुसेड दिया. देखते ही देखते ” घंघरू की तरह बजता ही रहा हूं ” के स्वर पूरे वातवरण को झनझनाने लगे.मैं समझा कि मेरे मित्र का मन आज क्लांत है और वो मुझसे अपनी भावनाएं शैयर करना चाहाता है.पर गलत ……. एक दम गलत. मैं भावनाओं मे बह कर ये भूल गया कि कलेश फैलाने का एकाअधिकार सिर्फ और सिर्फ ब्रिजेश जी को है और कोई अन्य उनकी इस कर्म भूमि में प्रवेश कर ही नहीं सकता .
थोडी देर ये पिटा हुआ गीत सुन कर मैं ऊब गया और मेरे चेहरे पर उभरे भावों को भांप कर ब्रिजेश जी बोले – कैसा लगा ?
मैं बोला – ठीक है. शाम को सुनते तो अच्छा लगता.अभी मूड अलग है
अरे वो नहीं गाना .गाना …
गाने के बारे में ही कह रहा हूं यार
अरे मेरा मतलब गायकी , सिंगर , आवाज़ !!
सिंगर ? अरे किशोर दा हैं तो अच्छा ही गायेंगे ना
वही तो . ये किशोर दा नहीं हैं
मतलब ? तो और कौन है ? ये 100 % किशोर ही हैं
नहीं ये किशोर दा नहीं कोई और है.
कौन ?
इस पर ब्रिजेश जी ज़रा लजा गये और झुकी हुई नज़रों से अपनी तरफ इशारा करने लगे
मैं खेल के मूड में आ गया. अरे नहीं मैं मान ही नहीं सकता. लगी सौ सौ की … क्या बात कर रहो ?
यही तो बात है मेरे दोस्त. आज इंडस्ट्री में कद्र्दान ही कहां हैं ? किशोर दा लकी थे कि सही समय पर इडस्ट्री में आ गये नहीं तो वो भी मेरी तरह कोई थकी हुई नौकरी बजा रहे होते. साला हां जी कि नौकरी ना जी का घर .
आप सोचते होंगे कि इसका क्या मतलब ?? मैंने भी सोचा था. पर ब्रिजेश जी ऐसी बातें कह जाया करते थे कि आदमी जीवन भर सोचे और उनका मर्म जाने बिना ही पंच तत्वों में विलीन हो जाये.
कहने की ज़रूरत नहीं कि उसके बाद मैं कई दिन उनके हुनर को तराशता रहा और यहां तक कि कुमार सानू की खास पेशकश पर ब्रिजेश जी बम्बई भी हो आये. ये बात और है कि मैंने उन्हें ये कभी नहीं बताया कि उस दिन जो बीस आदमी जो उनकी गायकी का शिकार बन चुके थे वो मुझे उनके जाल में ना फंसने के लिय आगाह कर आये थे .
मेरे फैरवेल में ब्रिजेश जी ने दर्द मे सराबोर हो कर – चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना गाया और वक़्त के मेले में हम दोनों कहां खो गये पता ही नहीं चला.
आज बरसों बाद मेरे एक निर्यातक मित्र का फोन आया. वो बहुत ही विचलित अवस्था में थे.
केहने लगे – यार पियर वन ( अमरीका का रिटेल स्टोर ) से एक इंसपेक्टर आया है. बडा ही बद्तमीज़ है.
मैं बोला – सो क्यों
अमां मुझसे से कह रहा है कि ज़रा एक गिलास पानी ले आओ.भला ये क्या बात हुई. वहां किसी को जानते हो ? ये बद्तमीज़ी तो मुझसे बर्दाश्त ना होगी.बिजेनेस रहे या जाये.
मेरे चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी और मैंने कहा – उनसे पूछो कि सर पानी गिलास में लाऊं या सीधा बोतल से पियेंगे ?
यार मेरी जान मुश्किल में है और तुम्हें मज़ाक सूझ रहा है. इसका क्या मतलब ?
अरे तुम पूछो तो . फिर आगे बताना.
थोडी ही देर बाद मेरे निर्यातक मित्र का फोन फिर आया. चेहकते हुए केहने लगे – यार कमाल हो गया. वो तो केहने लगे कि मैं तो यों ही मज़ाक कर रहा था. अभी अभी तो कोल्ड ड्रिंक पी है.और हां मज़े की बात तो ये है कि अचानक तुम्हारे बारे में पूछने लगे . तुम जानते हो क्या ?
हां शायद थोडा थोडा – मैं हंस रहा था .
**ये कहानी पूर्ण्त: मेरे खाली दिमाग की पैदवार है. इसका किसी भी व्यक्ती या वस्तु विशेष से कोई सरोकार नहीं है. बस पढें और मज़ा ले … जैसा मैंने लिखते समय किया है.
~ By aahang